अहिंसा महावीर दर्शन की मूल धुरी
अहिंसा महावीर दर्शन की मूल धुरी
महावीर दर्शन की मुल धुरी अहिंसा है जियो और जीने दो का उद्घोष भगवान महावीर ने किया था. मन वचन और कर्म से किसी जीव को संताप न पहुंचाना ही सच्ची अहिंसा है. अहिंसा का यह उत्कर्ष जैन परम्परा की विशिष्ट देन है. अहिंसा से ही विश्व में शांति, भाई चारा कायम रह सकता है. भगवान महावीर के विश्व बंधुत्व संदेश से उनकी तपस्या से जन-जन में आत्मीय और दया की भावना सजीव हो गई थी.
अहिंसा परमोधर्मः अर्थात अहिंसा ही परम धर्म है. अहिंसा को केन्द्र मानकर भगवान महावीर ने सत्य अस्तेय, अपरिग्रह संभव है. अहिंसा से विश्व की शांति जुड़ी हुई है. मानव ही नही प्रत्येक जीव का कल्याण अहिंसा पर केद्रित है. भारत में सबसे पहले लोकतंत्र की स्थापना विहार के वैशाली राज्य में हुई थी. इस राज्य के प्रमुख महराज चेटक थे, जिनके भनेज के रूप में महावीर का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को ईसा से 599 वर्ष पहले कुण्डल पुर नगर में हुआ था. नालंदा जिले में स्थित इस कुण्डलपुर नगरी के कण-कण में महावीर के जन्म की पवित्रता आज भी विद्यमान है, इसलिए यहां की रज प्राप्त करने के लिए देश विदेश से जैन धर्मावलंबी कुण्डलपुर पहुंचते है. और कुण्डलपुर अवतारी, त्रिशलानंद विभो आदि संबोधन से भगवान महावीर की आरती उतारते ह. सिद्धार्थ के सोने के महल ष् नद्यावर्त ष् में महावीर का जन्म हुआ था, जिसका प्रतिरूप आज भी उसके पालने और जीवन संबंधी प्राचीन कलाकृतियों को सचित्र दर्शाता है. नद्यावर्त महल के आंगन में धन कुबेर द्वारा रत्नांे की वर्षा की गई थी. महावीर के जन्म के पूर्व माता त्रिशाला को सोहल स्वप्न आये थे, जिनका फल माता ने महाराज सिद्धार्थ से पूछा था. संजय-विजय महामुनी ने बालक वर्धमान का नाम रखा. संगमेदव को वर्धमान का नाम ष् महावीर ष् रखा. वे कर्म को जीतने से ष् वीर ष् धर्म उपदेश देने से ष् सन्मति ष् और उपसर्गों के सहन करने से महावीर कहलाये. 2600 वर्ष बीत जाने के बाद भी कुण्डलपुर के नद्यावर्त महल में महावीर के नामकरण , स्वर्ग से देवों द्वारा लाये गये वस्त्रों-अलंकारों का वर्धमान द्वारा पहनना, देवगणों द्वारा उनके लिए भोजन लाना, उद्यान में सर्प के फन पर उनका खेलना , संगीत सभा और सभा में पुछे गये प्रश्नो के उत्तर देते हुए महावीर की अभिनव प्रस्तुति सबका मन मोह लेती है. भगवान महावीर ने बाल्यकाल मे कठिन तपस्या के लिए वन में गमन किया , जिन्हे आहार देने के कारण चंदना सती हुई और संसार में पसिद्ध हुई. भगवान महावीर का पहला सातवां और नौवा चर्तुमास कुण्डलपुर में हुआ था. कठोर तपस्या के बाद उन्हें केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई तथा अपनी इद्रियों पर विजय प्राप्त की. त्याग पूर्ण जीवन व्यतीत करते हुए उन्होने अपूर्व साहस और मनोबल का परिचय दिया. अंत में वो पावापुरी पहुंचे, जहां मनोहर नामक वन में पहुंचकर आत्म ध्यान करने लगे. कार्तिक कृष्ण चतुर्दशी को 72 वर्ष की उर्म में उन्होने मो़क्ष प्राप्त किया. उनके साथ 26 मुनी मोक्ष गये. निर्वाण भूमि पावापुरी मे पद्म सरोवर के मध्य में जल मंदिर बना हुआ है कि यहां भगवान महावीर का निर्वाण होने पर उनका अंतिम संस्कार देवताओं ने किया था. पावापुरी की भूमि इतनी पावन है कि यहां से धर्मावलंबी मिट्टी ले जाते रहे है, जिसके कारण 1459 फुट लंबे और 1223 चैडे़ पद्म सेरोवर का निर्माण हो गया. महावीर दर्शन की मुल धुरी अहिंसा है. जियो और जीने दो का उद्घोष भगवान महावीर ने किया था. मन वचन और कर्म से किसी जीव को संताप न पहुंचाना ही सच्ची अहिंसा है. अहिंसा का यर्ह उत्कर्ष जैन परम्परा की विशिष्ट देन है. अहिंसा से ही विश्व में शांति, भाई चारा कायम रह सकता है भगवान महावीर के विश्व बंधुत्व संदेश से, उनकी तपस्या से जन-जन में आत्यमीय और दया की भावना सजीव हो गई थी. सच से बड़ा कोई धर्म नही होता और झुठ से बड़ा पाप नही, इसलिए मन वचन और कर्म द्वारा सत्य का पालन करना चाहिए. दुसरो पर शासन मत करो अपने शरीर पर अपने वाणी पर, अपने मन पर. सभी प्रकार की वासनाओं को त्याग कर संयमी जीवन व्यतीत करना चाहिए. महावीर ने अपने उपदेशो में आत्म अनुसंधान पर विशेष बल दिया है. आत्मशुद्धि साधनं धर्मः आत्मा की शुद्धि का साधन ही धर्म है. आज की विषम परिस्थितियों में भी महावीर स्वामी के उपदेश प्रत्येक मानव को सुख शांति प्रदान कर सकते है, अखिल विश्व के स्वामी अनंत गुणों के सागर, धर्मरूपी चक्र के धारक भगवान महावीर की स्तुति महावीर पुराण में इस प्रकार की गई है –
सागर अतुलित गुणों के,
सर्वमान्य अखिलेश।
धर्मचक्र धारी महा,
बन्दो वीर जिनेश ।।
डाॅं. भागचन्द्र जैन
प्राध्यापक (कृषि अर्थशास्त्र)
प्रचार अधिकारी
कृषि महाविद्यालय, रायपुर (छ.ग.) 492012